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1.2.5 उस ( ईश्वर ) से क्षुधा-पिपासाने कहा-'हमारे लिये आश्रयकी योजना कीजिये।' तब [उसने] उनसे कहा-'तुम दोनोंको मैं इन देवताओं में हो भाग दूंगा अर्थात् मैं तुम्हें इन्हींमें भागीदार करूँगा।' अतः जिस किसी देवताके लिये हवि दी जाती है उस देवताकी हविमें ये भूख-प्यास भी भागीदार होती ही हैं ॥ ५॥ उस ( ईश्वर ) से क्षुधा-पिपासाने कहा-'हमारे लिये आश्रयकी योजना कीजिये।' तब [उसने] उनसे कहा-'तुम दोनोंको मैं इन देवताओं में हो भाग दूंगा अर्थात् मैं तुम्हें इन्हींमें भागीदार करूँगा।' अतः जिस किसी देवताके लिये हवि दी जाती है उस देवताकी हविमें ये भूख-प्यास भी भागीदार होती ही हैं ॥ ५॥
1.3.1 उस ( ईश्वर ) ने विचारा ये लोक और लोकपाल तो हो गये अब इनके लिये अन्न रचूँ ॥ १ ॥ उस ( ईश्वर ) ने विचारा ये लोक और लोकपाल तो हो गये अब इनके लिये अन्न रचूँ ॥ १ ॥
1.3.2 उसने आपों (जलों ) को लक्ष्य करके तप किया । उन अभितप्त आपोंसे एक मूर्ति उत्पन्न हुई, यह जो मूर्ति उत्पन्न हुई वही अन्न है ॥२॥ उसने आपों (जलों ) को लक्ष्य करके तप किया । उन अभितप्त आपोंसे एक मूर्ति उत्पन्न हुई, यह जो मूर्ति उत्पन्न हुई वही अन्न है ॥२॥
1.3.3 [लोकपालोंके आहारार्थ ] रचे गये उस इस अन्नने उनकी ओरसे मुँह फेरकर भागना चाहा । तब उस ( आदिपुरुष) ने उसे वागिन्द्रियद्वारा ग्रहण करना चाहा, किन्तु वह उसे वाणीसे ग्रहण न कर सका । यदि वह इसे वाणीसे ग्रहण कर लेता तो [ उससे परवर्ती पुरुष भी ] अन्नको बोलकर ही तृप्त हो जाया करते ॥ ३ ॥ लोक और लोकपालोंके निमित्त उनके सम्मुख निर्मित हुआ अन्न यह मानकर कि अन्न भक्षण करनेवाला तो मेरी मृत्यु है, उसकी ओरसे मुख मोड़कर, जिस प्रकार बिलाव आदिके सामनेसे [उसे अपनी मृत्यु समझकर] चूहे आदि भागना चाहते हैं उसी प्रकार उन अन्न भक्षण करनेवालोंका अतिक्रमण करके जानेकी इच्छा करने लगा; अर्थात् उसने उनके सामनेसे दौड़ना आरम्भ कर दिया ।

अन्नके उस अभिप्रायको जानकर लोक और लोकपालों के देहइन्द्रियरूप संघात उस पिण्डने प्रथमोत्पन्न होनेके कारण अन्य अन्नभोक्ताओं को न देखकर उस अन्न को वाणी अर्थात् बोलने की क्रिया से ग्रहण करना चाहा । किन्तु वह वदनक्रियासे उस अन्नको ग्रहणकरनेमें शक्त-समर्थ न हुआ। वह सबसे पहले उत्पन्न हुआ देह-धारी यदि इस अन्नको वाणीसे ग्रहण कर लेता तो उसका कार्यभूत होनेके कारण सम्पूर्ण लोक अन्नको बोलकर ही तृप्त हो जाया करता । परन्तु बात यह है नहीं, अतः हमें जान पड़ता है कि वह पूर्वोत्पन्न विराट् पुरुष भी उसे वाणी से ग्रहण करने में समर्थ नहीं हुआ था ॥३॥

1.3.4 फिर उसने इसे प्राणसे ग्रहण करना चाहा; किन्तु इसे प्राणसे ग्रहण करनेमें समर्थ न हुआ । यदि वह इसे प्राणसे ग्रहण कर लेता तो [ इस समय भी पुरुष ] अन्न के उद्देश्यसे प्राणक्रिया करके तृप्त हो जाता ॥ ४ ॥ [ इसी प्रकार उसने ] उस अन्न को प्राणसेेेेे, नेत्रसे, श्रोत्रस, त्वचासे, मनसे, शिश्नसे एवं भिन्न-भिन्न इन्द्रियोंके व्यापारसे ग्रहण करनेमें असमर्थ होकर अन्तमें उसे मुखके छिद्रद्वारा अपानवायुसे ग्रहण करने की इच्छा की । तब उसे ग्रहण कर लिया; अर्थात् इस प्रकार इस अन्नको भक्षण कर लिया । उसो कारणसे वह यह अपानवायु अन्नका ग्रह अर्थात् अन्न ग्रहण करनेवाला है।जो वायु अन्नायु-अन्नरूप बन्धन वाला अथोत् अन्नरूप जीवनवाला प्रसिद्ध है वह यह [अपान ] वायु ही है ॥ ४-१० ॥
1.3.5 उसने इसे नेत्रसे ग्रहण करना चाहा; परन्तु नेत्रसे ग्रहण करनेमें समर्थ न हुआ । यदि वह इसे नेत्रसे ग्रहण कर लेता तो [इस समय भी पुरुष ] अन्नको देखकर ही तृप्त हो जाया करता ॥ ५॥ [ इसी प्रकार उसने ] उस अन्न को प्राणसेेेेे, नेत्रसे, श्रोत्रस, त्वचासे,

मनसे, शिश्नसे एवं भिन्न-भिन्न इन्द्रियोंके व्यापारसे ग्रहण करनेमें असमर्थ होकर अन्तमें उसे मुखके छिद्रद्वारा अपानवायुसे ग्रहण करने की इच्छा की । तब उसे ग्रहण कर लिया; अर्थात् इस प्रकार इस अन्नको भक्षण कर लिया । उसो कारणसे वह यह अपानवायु अन्नका ग्रह अर्थात् अन्न ग्रहण करनेवाला है।जो वायु अन्नायु-अन्नरूप बन्धन वाला अथोत् अन्नरूप जीवनवाला प्रसिद्ध है वह यह [अपान ] वायु ही है ॥ ४-१० ॥

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